( २०६ ) ना हम नरक लोक को जाते ना हम सरग सिधारे हो। सव ही कर्म हमारा कीया हम कर्मन ते न्यारे हो । या मत को कोइ विरला वूझै सो सतगुरु हो वैठे हो। मत कवीर काहू को थापे मत काहू को मेटे हो ।।८।। फहम करु फहम करु फहम करु मान यह फहम विनु 'फिकिर नहि मिट तेरी। सकल उजियार दीदार दिल वीच है जौक औ शौक सव मौज तेरी ।। बोलता मस्त मस्ताने महवूव है इना सा अदल कहु कौन केरी। एक ही नूर दरियाव वह देखिए फैल वह रहा सव सृष्टि में री। आप ही गन्नी गरीव है आप ही आप गनीम हो आप घेरी। आप ही चार पुनि साहु है आप ही ज्ञान कथि श्राप ही आप सुने री। आप ही हरी हरिनाकुसा आप ही आप नरसिंह हो आप गेरी। आप ही रावना आप रघुनाथ जी आप को आप ही आप दले री। आप वलि होइकै दान वसुधा किया आप हो वावना आप छलेरी। आप ही कृपण है कंस है आप ही आप को आप आपहि हते री। आप ही भक्त भगवंत है आप ही और नहिं दूसरा अर्ज सुने री ॥८३॥ मुक्त होने छुटै बँधन सेती तब कौन मरै तिसै कौन भारै । अहंकार तजै भय रहित हो तब कौन तरे तिसे कौन तारे ॥ भरना जीना है ताहि को जी जो आपु को आपु विसारि डा। चैतन्य हावै उठि जागि देखे दयादेखि कै जोति कबीरधारै॥८४॥ यह तो एक हुवाव है जी साकिन दरियाव के वीच सदा । हुब्बाव तो ऐन दरियाव जी देखो नहिं वह से मौज जुदा ॥ हुब्बाव तो है उठनेहि में जी है बैठने में मतलब्ध खुदा । होवाव दरियाव कवीर है जो दुजा नाम बोले सो बुदबुदा ॥८५॥ घट घट में रटना लागि रही परगट हुआ अलेख है जी। कहुँ चार हुआ कहुँ साह हुआ कहुँ वाम्हन है कहुँ सेख है जी॥
पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२२४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।