पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२२३

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दूजा धोखा इकल सतगुरु को ( २०५ .) अग्नि पवन पानी पिरथी नभ ता विन मेला नाहीं। काजी पंडित करो निवेरा काके माहिं न साँई ।। साँचे नाम अगम की आसा है वाही में साँचा। करता वीज लिए है खेतै त्रिगुन तीन तत पाँचा।। जल भरि कुंभ जलै विच धरिया वाहर भीतर सोई। उनको नाम कहन को नाँही दूजा धोखा होई॥ कठिन पंथ सतगुरु को मिलना खोजत खोजत पाया ।' इक लग खोज मिटी जव दुविधा ना कहुँ गया न आया। कहैं कवीर सुनो भाइ साधे सत्त शब्द निज सारा। आपा मद्धे आपै वोले आपै सिरजनहारा ॥७९।। दरियाव की लहर दरियाव है जीदरियाव औलहर भिन्न कोयम। उठे तो नीर है वैठता नीर है कहो किस तरह दूसरा होयम ।। उसी नाम को फेर के लहर धारो लहर के कहे क्या नीर खोयम। जक्तही फेरसव जक्त है ब्रह्ममें ज्ञान करि देख कच्चीर गोयम।।८।। ____मन तू मानत क्यों न मना रे । कौन कहन को कौन सुनन को दूजा कौन जना रे।। दरपन में प्रतिवव जो भाले श्राप चहूँ दिसि साई। . दुविधा मिट एक जव हावै तो लख पावै कोई ।। जैसे जल ते हेम बनत है हेम धूम जल होई। तैसे या तत वाह तत से फिर यह अरु वह साई ।। जो.समझे तो खरी कहन है ना समझै तो खोटी। कह कबीर दोऊ पख त्यागै ताकी मति है मोटी ।।८।। ना मैं धरमी नाहिं अधरमी ना मैं जती न कामी हो.. ना मैं कहता ना मैं सुनता ना मैं सेवक स्वामी हो. ना मैं बंधा ना मैं मुक्ता ना निरबंध सरवंगी हो। . ना. काहू से न्यारा. हुआ ना काहू को संगी हो.., - - - -