( २०४ ) जव लग सिंह रहै वन माहिं । तव लग वह वन फूले नाहि ॥ उलटा स्यार सिंह को खाय । उकठा वन फूलै हरिआय ॥ ज्ञान के कारन करम कमाय । होय ज्ञान तव करम नसाय ॥ फल कारन फूलै वन राय । फल लागे पर फूल सुखाय ॥ मिरग पास कस्तूरी वास । आप न खोजै खोजै घास ॥ पारै पिंड मीन लै खाई। कहैं कवीर लोग बौराई ॥७६।। अवयू अंध कूप अँधियारा । या घट भीतर सात समुंदर याहि में नदी नारा । या घट भीतर काशि द्वारिका याहि में ठाकुरद्वारा ।। या घट भीतर चंद सूर है याहि में नौ लख तारा। कहैं कवीर सुनो भाई साधो याहि में सत करतारा ॥७॥ साचो एक आपु जग माहीं।। दूजा करम भरम है किरतिम ज्यों दरपन में छाहीं। जल तरंग जिमि जलते उपजै फिर जल माहिरहाई ॥ काया झाँई पाँच तत्त की विनसे कहाँ समाई। या विधि सदा देहगति सवकी या विधि मनहिं विचारो। आया होय न्याव करि न्यारो परम तत्व निरवारो॥ सहजै रहै समाय सहज में ना कहुँ आया न जाये। धरै न ध्यान करै नहिं जप तप राम रहीम न गावै॥ तीरथ वरत सकल परित्यागै सुन्न डोर नहिं लावै ॥ यह धोखा जव समुझि परै तब पूजे काहि पुजावै । जोग जुगत में भरम न छूटै जब लग आप न सूझै। कह कवीर सोइ सतगुरु पूरा जो कोइ समुझै बूझै ॥७॥ साधा सहजै काया सोधी । करता आपु आप में करता लख मन को परमोधो॥ जैसे बट का बीज ताहि मैं पत्र फूल फल छाया । . ' आया मद्धे बुंद :बिराजै बुंदै मद्धे काया ॥ ..
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