पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२१५

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( १९७ ) अनजाने को नरक सरग है हरि जाने को नाहीं। जेहि डर को सब लोग डरत हैं सों डर हमरे नहीं। पाप पुन्न को संका नाहीं नरक सरग नहिं जाहीं। कहै कबीर सुनो हो संतो जहँ पद तहाँ. समाहीं ॥६॥ चलो सखी वैकुंठ विष्णु माया जहाँ। चारिउ मुक्ति निदान परम पद ले तहाँ ।। आगे शून्य स्वरूप अलख नहि लसि परै। तत्व निरंजन जान भरम जनि चित धरै ।। आगे है भगवंत निरच्छर नाँव है।" तौन मिटावै कोटि बनायै ठाँव है।' आगे सिंधु वलंद महा गहिरो जहाँ । को नैया ले जाय उतारै को तहाँ। कर अजया की नाच तो सुरति उतारिहै। लेइहै। अजर नाउ तो हंस उवारिहै ।। पार उतर पुरुषोत्तम परख्यो जान है। तहवा धाम अखंड तो पद् निर्धान है। तह नहिं चाहत मुक्ति तो पद डारे फिरै। सुनत सनेही हंस निरंतर उच्च ।। वारह मास वसंत अमरलीला जहाँ। कहैं कवीर विचार अटल है रहु तहाँ॥६॥ सत्त सुकृत सत नाम जगत जानै नहीं। चिना प्रेम परतीत कहा मानै नहीं। जिव अनंत संसार न चीन्हत पीव को। 'कितना कह समझाय चौरासिक जीव को॥ आगे धाम अखंड सो पद निरवान है। भूख नींद ना वहाँ निःअच्छर नाम है।