( १९० ) योगी के योगिनि है बैठी राजा के घर रानी। काह के हीरा है बैठी काहु के कौड़ी कानी ।। भक्तन के भक्तिनि है बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी । कहै कबीर सुनो हो संतो यह सब अकथ कहानी ||२|| सयही मदमाते कोइ न जाय । सँगहिं चोर घर मृसन लाग । योगी मदमाते योग ध्यान । पंडित मदमाते पदि पुरान ।। तपसी मदमाते तप के भेव । संन्यासी मदमाते करि हमेव ।। मौलना मदमाते पदि मोलाफ । काजी मदमाते के निसाफ ॥ शुकदेव मते ऊधेी अकर। हनुमत मदमाते ले लँगूर ॥ संसार मत्यो माया के धार । राजा मदमाते कहि हकार ॥ शिव माति रहे हरि चरण सेव । कलि माते नामा जयदेव ॥ वह सत्य सत्य कह नुनित वेद । जस रावण मारे घर के भेद ॥ एहि चंचल मन के अधम काम । कह कबीर भज राम नाम॥३॥ आँधर गुष्टि सृष्टि में वैरी । तीनि लोक महँ लागि ठगारी।। ग्रामहि ठग्यो नाम संहारी। देवन सहित ठग्यो त्रिपुरारी ।। राज ठगारी विश्नुहि परी । चौदह भुवन केर चौधरी॥ आदि अंत जेहि साहु न जानी । ताके डर तुम काहे मानी ॥ ऊ उतंग तुम जाति पतंगा। यम घर किहेह जीव के संगा ॥ नीम कीट जस नीम पियारा । विख को अमृत कई गँवारा ॥ विप के संग कवन गुण होई । किंचित लाम मृल गो खोई।। विष अमृत गो पहि सानी। जिन जाना तिन विप के मानी ।। फा भप. नर सुध चे मुभा । विन परचे जग मूह न बूझा ।। मति का हीन कीन गुण कहई । लालच लागे अाशा राई ।। मुना अट मरि जागे, मुग कि बाजी दाल । न्यम सनही जग भया, महि दानी रह बोल था। जरामिधु शिशुपाल महारा। महम अतुने छ सो माग ।।
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