पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२००

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( १८२ ) दो दल कँवल कंठ के माँहीं, तेहि मध वसे अविद्या वाई । हरि हर ब्रह्मा चवर दुलाई, भंग नाम उच्चारा है ॥ तापर फंज कँवल है भाई, वग भौंरा दुइ रूप लखाई । निज मन करत तहाँ ठकुराई, सो नैनन पिछवारा है ॥ कँवल भेद किया निरवारा, यह सव रचना पिंड मँझारा । सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सत नाम उचारा है ॥ आँख कान मुख बंद कराओ, अनहद भिंगा शब्द सुनाओ। दोनों तिल इक तार मिलाओ, तव देखो गुलजारा है ॥ चंद सूर एकै घर लाओ, सुपमन सेती ध्यान लगायो। तिरवेनी कै संघ समाओ, भोर उतर चल पारा है॥ घंटा संख सुनो धुन दोई, सहस कँवल दल जगमग होई । ता मध करता निरखों सोई, बंक नाल धंस पारा है ॥ डाकिनि साकिनि बहु किलकारे जम किंकर भ्रम दूत हकारे । सत्त नाम सुन भागें सारे, सतगुरु नाम उचारा है ॥ गगन मँडल विच उर्धमुख कुइयाँ, गुरुमुख साधू भरभर पीया। निगुर प्यास मरे विन कीया, जाके हिय अँधियारा है। निकुटि महल में विद्या सारा, घनहर गरजे बजे नगारा। लाल वरन सूरज उँजियारा, चतुर कँवर मँझार ओंकारा है ॥ साध सोई जिन यह गढ़ लीन्हा, नौ दरवाजे परगट चीन्हा । दसवाँ जाय खोल जिन दीन्हा, जहाँ कुलुफ रहा मारा है ॥ आगे सेत सुन्न है भाई, मान सरोवर पैटि अन्हाई । इंसन मिलि हंसा होइ जाई, मिले जो अमी याहारा है। किगरी सारँग बजे सितारा, अच्छर ब्रह्म मुन्न दरवारा। द्वादस भानु हंस उजियारा, पटदल कँवल मँझारसन्दररंकारा है। महा सुन्न सिघ विपमी घाटी, विन सतगुरु पावै नहिं बाटी। व्याघर सिंघ सरप बहु काटी, सहज अचित पसारा है॥