( १३ ) कि मनुष्य के ऊपर पाँव पड़ा, इसलिये वे बोल उठे राम ! राम !!" कवीर साहब ने इसी राम शब्द को मंत्र स्वरूप ग्रहण किया और उसी दिन से काशी में अपने को स्वामी रामानंद का शिष्य प्रकट किया। बतलाया गया है कि उनके माता पिता और कुछ लोगों को वंशमर्यादा-प्रतिकूल कवीर साहब की यह क्रिया अच्छी न लगी; इसलिये उन लोगों ने जाकर स्वामी जी को उलाहना दिया। स्वामी जी ने उनको बुलवाया और पूछा-कवीर ! हमने तुझे मंत्र कव दिया ? कवीर साहव ने कहा-और लोग तो कान में मंत्र देते हैं ; परंतु आपने तो सिर पर पाँव रखकर मुझे राम नाम का उपदेश दिया। स्वामी जी को वात याद श्रा गई, उठकर हृदय से लगा लिया, और कहा कि निस्संदेह तू इसका पात्र है। गुरु शिष्य का यह भाव देखकर लोगों को फिर और कुछ कहने का साहस नहीं हुआ। स्वामी रामानंद असाधारण प्राध्यात्मिक शक्ति संपन्न महापुरुष थे। जो रामावत संप्रदाय इस समय उत्तरीय भारत का प्रधान धर्म है, वह उन्हीं की लोकोत्तर मेधा का अली- किक फल है । उस राम मंत्र से सर्व साधारण को परिचित करानेवाले यहा महोदय हैं, जो हिंदू जाति के मोक्ष-पथ का अभूतपूर्व संवल हैं, जिनके सुयश गान से कवीर साहव के सांप्रदायिक ग्रंथ मुखरित हैं, गुरु नानक का विशाल आदि ग्रंथ गौरवान्वित है, दादू ग्रंथावली पवित्रीकृत है। और अन्य कितना ही सांप्रदायिक पुस्तकमालाएँ प्रशंसित और सम्मानित हैं। कुछ लोग ऊँचे उठे, वहुत कुछ चिंताशीलता का परिचय दिया, तनधारी राम से संबंध तोड़ा, किंतु वे इस राम शब्द की ममता न छोड़ सके। इस महात्मा के आध्यात्मिक विकास की वहाँ पराकाष्ठा होती है। जहाँ वे
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