पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१८६

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( १६८) जहिया होत पवन नांह पानी । तहिया सृष्टि कौन उतपानी॥ तहिया होत कली नहिं फूला । तहिया होत गर्भ नहिं मूला ॥ तहिया होत न विद्या वेदा। तहिया होत शब्द नहि खेदा।। तहिया होत पिंड नहिं वासू । न धरधरणि न गगन अकासू ॥ तहिया होत गुरू नहि चेला । गम्य अगम्य न पंथ दुहेला ॥ अविगति की गति क्या कहाँ जाके गाउँ न ठाउँ। गुणों विहीना पेखना का कहि लीजे नाउँ ॥१५॥ सत्य लोक .बलिहारी अपने साहब की जिन यह जुगुत बनाई। उनकी शोभा केहि विधि कहिए मोसों कहीन जाई । बिना ज्योति की जहँ उँजियारी सो दरसै वह दीपा । निरतै हँस करै कौतूहल वो ही पुरुख समीपा ।। झलकै पदुम वानि नाना विध माथे छत्र विराजै । कोटिन भानु चंद तारागण एक कुचरियन छाजै ॥ कर गहि विहँसि जवै मुख बोले तव हंसा सुख पात्र । चंश अंस जिन वूझ विचारी सो जीवन मुकता का चौदह लोक चेद का मंडल तह लग काल दोहाई। लोक वेद जिन फंदा काटी ते वह लोक सिधाई॥ सात शिकारीचौदह पारथ भिन्न भिन्न निरतावै । चारि अंश जिन समझ विचारी सो जीवन मुकताचै ।। चौदह लोक चसै यम चौदह तह लग काल पसारा। ताके श्रागे ज्योति निरंजन चैठे सुन्न मँझारा ।। सोरह पट अच्छर भगवाना जिन यह सृष्टि उपाई । .. अच्छर कला सृष्टि से उपजी उनहीं माँह समाई ।।