पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१८४

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( १६६ ) सुर नर मुनि सव पीर औलिया मीरा पैदा कीन्हा हो। कह लौ गिनें अनंत कोटि लौं सकल पयाना दीन्हा हो । पानी पवन अकास जाहिगो चंद्र जाहिगो सूरा हो। वह भी जाहिगोयह भी जाहिगोपरत काहु को न पूरा हो । कुसलै कहत कहत जग बिनसै कुसल काल की फाँसी हो। कह कबीर सब दुनिया बिनसल रहल राम अविनासी हो ।। ऐसा लो तात ऐसा लो, मैं केहि विधि कहौं गभीर लो। वाहर कहा तो सतगुरु लाजै, भीतर कहौं तो झूठा लो ।। बाहर भीतर सकल निरंतर, गुरु परतापै दीठा लो। दृष्टि न मुष्टि न अगम अगोचर, पुस्तक लिखानजाई लो। जिन पहिचाना तिन भल जाना, कहे न तो पतियाई लो। मीन चलै जल.मारग जोवै, परम तत्त धौं कैसा लो ।। पुहुप बास हूँ ते कछु झीना, परम तत्त धौं ऐसा लो। आकासै उडि गयो विहंगम, पाछे खोज न दरसी लो॥ कह कवीर सतगुरु दाया ते बिरला सत पद परसीलो॥११॥ वावा अगम अगोचर कैसा, तातें कहि समुसाआ ऐसा। जो दीलै सो तो है नाहीं है सो कहा न जाई ।। सैना वैना कहि समझाओं, गूंगे का गुरु-भाई। दृष्टि न दीसै मुष्टि न आवै, बिनसे नाहिं नियारा। ऐसा ज्ञान कथा गुरु मेरे, पंडित करौ विचारा॥ विन देखे परतीत न आवै, कहे न कोउ पतियाना । समुझा होय सो सन्दै चीन्है, अचरज होय अयाना ।। कोई ध्याव निराकार को, कोइ ध्याचे साकारा । वह तो इन दोऊ ते न्यारा, जानै जाननहारा ।। काजी कथै कतेव कुराना, पंडित वेद पुराना। वह अच्छर तो लखा न जाई, मात्रा लगै न काना ।।