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( १६० ) रचनहार को चीन्हि ले खाने को क्यों रोय । दिल-मंदिर में पैठ करि तानि पिछौरा सोय ॥७७८।' सव से भली मधूकरी भाँति भाँति का नाज। दावा काहू का नहीं विना विलायत राज ।।७७९।। भौसागर जल विष भरा मन नहिं वाँधै धीर । सब्द-सनेही पिउ मिला उतरा पार कवीर ॥७८०॥ नाम रतन धन संत पहँ खान खुली घट माहिं । सेंत मेंत हौं देत हौं गाहक कोई नाहि ।।७८)