पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१७४

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आगे सीढ़ी साँकरी पाछे चकनाचूर । परदा तर की सुंदरी रही धका दै दूर ॥७२६।। बेरा बाँधि न सर्प को भवसागर के माहिं । छोड़े तो वूड़त अहै गहै तो डसिह वाहि ॥७२७।। कर खोरा खोवा भरा मग जोहत दिन जाय । कविरा उतरा चित्त लो छाँछ दियो नहिं जाय ॥७२८॥ विप के विरवा घर किया रहा सर्प लपटाय । ताते जियरै डर भया जागत रैनि विहाय ॥७२९।। सेमर केरा सूचना सिहले बैठा जाय । चांच चहारै सिर धुनै यह वाही को भाय ॥७३०॥ सेमर सुवना बेगि तजु धनी विगुर्चन पाँख । ऐसा सेमर जो सेवै हृदया नाहीं आँख ॥७३॥ केते दिन ऐसे गए अनरूचे को नेह । वोए ऊसर न ऊपजै जो धन बरसैं मेह ॥७३२॥ प्रकट कहीं तो मारिया परदा लखै न कोय । सहना छपा पयार तर को कहि वैरी होय ॥७३३॥ जौ लौ तारा जगमगै तो लौं उगै न सूर । तो लौं जिय जग कर्मवस जो लौं ज्ञान न पूर ॥७३४॥ करु वहियाँ वल आपनी छाँड़ विरानी आस । जाके आँगन नदी है सो कस मरै पित्रास ॥७३५॥ हे गुणवंती वेलरी तव गुण दरणि न जाय । जर काटे ते हरिअरी सींचे ते कुभिलाय ||७३६।। बेलि कुढंगी फल चुरो फुलवा कुवुधि वसाय । 'सूल विनासी तूसरी सरोपात करुयाय ॥७३७॥ हम जान्यो कुल हंस हो ताते कीन्हों संग । - जो जनत्यों वक वरन है। छुवन न देत्यों अंग ॥७३८॥