( १५४ ) नवन नवन वहु अंतरा नवन नवन बहु वान । ये तीनों बहुतै नवें चीता चार कमान ||७००१ कविरा सीप समुद्र की खारा जल नहिं लेय । पानी पावै स्वाति का सोभा सागर देय ।।७०१३॥ ऊँची जाति पपीहरा पियै न नीचा नीर। कै सुरपति को जाँचई के दुख सहै सरीर ॥७०२।। चातक सुतहिं पढ़ावही आन नीर मत लेय । मम कुल यही सुभाव है स्वाति यूँद चित देय १७०३।। लंचा मारग दूर घर विकट पंथ बहु भार। कह कवीर कस पाइए दुर्लभ गुरु दीदार ॥७०४।। हेरत हेरत हे सखी हेरत गया हेराय । बुंद समानी समुंद में सो कित हेरी जाय ॥७०५।। आदि होत सव श्राप मैं सकल होत ता माहिं। ज्यों तरवर के बीज में डार पात फल छाँहिं ॥७०६।। कविरा मैं तो तब डरौं जो मुझ ही में होय । मीच वुढ़ापा आपदा सव काहू में सोय ||७०७।। सात दीप नौ खंड में तीन लोक ब्रांड । कह कबीर सवको लगै देह धरे का दंड ।।७०८।। देह धरे का दंड है सब काहू को होय । ज्ञानी भुगतै ज्ञान करि मूरख भुगतै रोय ॥७०९।। देखन ही की बात है कहने की कछु नाहिं। आदि अंत को मिलि रहा हरिजन हरि हीमाहिं ।।७१०॥ सबै हमारे एक हैं जो सुमिरै सत नाम । वस्तु लही पहिचानि कै वासना सों क्या काम ||७११।। जूआ चोरी मुखविरी ब्याज धूस पर नार। जो चाहै दीदार को एती वस्तु निवार ।।७१२।।
पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१७२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।