पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१७०

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हिरदे भीतर आरसी मुख देखा नहिं जाय।
मुख तो सवहीं देखसी दिल की दुविधा जाय॥६७५॥
पानी हूँ तें: पातला धूआँ हूँ ते झीन।
पवन हुँ तें अति ऊतला दोस्त कवीरा कीन॥६७६॥
मन मनसा को मार करि नन्हा करि के पीस।
तव सुख पावै सुंदरी पदुम झलक्के सीस॥६७७॥
मन मनसा को मारि दै घट ही माहीं घेर।
जव ही चालै पीठ दै आँकुस दै दै फेर॥६७८॥
कविरा मनहि गयंद है आँकुस दै दै राखु॥
विप की वेली परिहरी अमृत का फल चाखु॥६७९॥

कुंभे वाँधा जल रहै जल विनु कुंभ न होय।
ज्ञानै वाँधा मन रहै मन विनु ज्ञान न होय॥६८०॥
मन माया तो एक है माया मनहि समाय।
तीन लोक संसय परा काहि कहूँ समुझाय॥६८१॥

मन सायर मनसा लहरि वूड़े वहे अनेक।
यह कवीर ते वाँचिहैं जाके हृदय विवेक॥६८२॥
नैनन आगे मन बसै रल पिल करै जो दोर।
तीन लोक मन भूप है मन पूजा सब ठौर॥६८३॥

तन वोहित मन काग है लख जोजन उड़ि जाय।
कवहीं दरिया अगम वहि कवहीं गगन समाय॥६८४॥
मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
कह कवीर पिउ पाइए मनहीं की परतीत॥६८५॥

तीनि लोक टींडी भई उड़िया मन के साथ।
हरिजन हरिजाने विना परे काल के हाथ॥६८६।।
बाजीगर का वंदरा ऐसा जिउ मन साथ।
नाना नाच नचाय कै राचै अपने हाथ॥६८७।।