पथ-दर्शक मिले, इस इच्छा से वे हिंदू साधुओं एवं मुसल्मान फकीरों दोनों के पास गए और अंत में जैसा कहा गया है, रामानंद के शिष्य हुए " -कवीर ऐंड कबीर पंथ, पृष्ट ३७ __ इन बातों के अतिरिक्त यदि कबीर साहव की रचनात्रा को पढ़िए, तो वे इतनी हिंदू-भावापन्न मिलेंगी, कि उन्हें पढ़कर आप यह स्वीकार करने के लिये विवश होंगे कि उनपर परम शास्त्रपारंगत किसी महापुरुप का प्रभाव पड़ा था। कबीर साहव अशिक्षित थे, यह वात उनके समस्त जीवनी-लेखक स्वीकार करते हैं। अतएव उनके लिये ज्ञानार्जन का मार्ग सत्संग के अतिरिक्त और कुछ न था। यदि वे मुसल्मान धर्माचार्यो द्वारा प्रभावित होते, तो उनकी रचनाओं में अहिंसावाद और जन्मांतरवाद का लेश भी न होता। जो हिंसावाद मुसल्मानी धर्म का प्रधान अंग है, उस हिंसावाद के विरुद्ध जब वे कहने लगते हैं, तब ऐसी कड़वी और अनुचित वाते कह जाते हैं जो एक धर्मोपदेशक के मुख से अच्छी नहीं लगती। क्या हिंसावाद का उन्हें इतना विरोधी बनानेवाला मुसल्मानी धर्म या सूफी संप्रदाय हो सकता है ? उनका सृष्टिवाद देखिए । यह वही है जो पुराणों में वर्णित है। (उनकी रचनाओं में हिंदू शास्त्रों और पौराणिक कथाओं एवं घटनाओं के परिज्ञान का जितना पता चलता है, उसका शतांश भी मुसल्मानी धर्म-संबंधी उनका ज्ञान नहीं पाया जाता। जब वे किसी अवसर पर मुसल्मान धर्म पर आक- मण करते हैं, तव उन्हीं ऊपरी वातों को कहते हैं जिनको एक साधारण हिंदू भी जानता है। किंतु हिंदू-धर्म-विवेचन के समय उनके मुख से वे वाते निकलती हैं, जिन्हें शास्त्रज्ञ वद्वानों के अतिरिक्त दूसरा कदाचित् ही जानता हो। इन वातों से क्या सिद्ध होता है ? यही कि उन्होंने किसी परम
पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।