( १५० ) अक्षर घट में ऊपजे व्याकुल संशय शूल । किन अंडा निरमाइया कहा अंड का मूल ॥६५०॥ तेहि अंड के मुक्ख पर लगी शब्द की छाप । अक्षर दृष्टि से फूटिया दश द्वारे कढ़ि वाप ॥६५।। तेहि ते ज्योति निरंजनौ प्रगटे रूप निधान । काल अपर वल वीर भा तीनि लोक परधान ॥६५२।। ताते तीनों देव भे ब्रह्मा विष्णु महेश । चारि खानि तिन सिरजिया माया के उपदेश ॥५३॥ लख चौरासी धार माँ तहाँ जीव दिय वास । चौदह जम रखवारिया चारि वेद विश्वास ॥६५४।। आपु आपु सुख सवर मैं एक अंड के माहिं । उत्पति परलय दुःख सुख फिरावहिं फिर जाहिं।६५५। सात सुरति सव मूल है प्रलयहुँ इनहीं माहि । इनहीं में से ऊपजे इनहीं माँह समाहिं ।।६५६।। सोइ ख्याल समरत्थ कर रहे सो अछपछ पाइ। सोइ संधि ले आइया सोवत जगहि जगाइ ॥६५७॥ सात सुरति के वाहिरे सोरह संख के पार । तह समरथ को वैठका हंसन केर अधार ॥६५८। मन के मते न चालिए मन के मते अनेक । जो मन पर असवार है सो साधू कोइ एक ।।६५९।। मन-मुरीद संसार है गुरु-मुरीद कोइ साध । जो मानै गुरु वचन को ताको मता अगाध ॥६६०॥ मन को मारु पटकि के टूक टूक होइ जाय। . विप की क्यारी बोइ के लुनता क्यो पछिताय ॥६६१॥
पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१६८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।