पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१६५

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( १४७ ) मन दीया कहिं और ही तन साधन के संग। कह कवीर कोरी गजी कैसे लागै रंग ॥६१।। लोग भरोसे कौन के वैरि रहे' अरगाय । ऐसे जियरै जम लुटै मेढ़े लुटे कसाय ।।६१७॥ वोली एक अमोल है जो कोइ बोलै जानि । हिए तराजू नौलि के तव मुख वाहर आनि ।।१।। - - विवेक फूटी आँखि विवेक की लखै न संत असंत। जाके सँग दस वीस हैं ताका नाम महंत ।।६१९।। साधू मेरे सव बड़े अपनी अपनी ठौर । सब्द विवेकी पारखी सो माथे के मौर ॥२०॥ समझा समझा एक है अन समझा सव एक। समझा कोई जानिए जाके हृद्य विवेक ॥६२।। भँवर जाल वगु जाल है वूड़े जीव अनेक । कह कवीर ते वाँचिहैं जिनके हृदय विवेक ||६२२।। जहँ गाहक तहँ ही नहीं हैंजहँ गाहक नाहि । चिन विवेक भटकत फिरै पकरि शब्द की छाँहि ॥६२३।। बुद्धि और कुबुद्धि अकिल अरस से ऊतरी विधना दीन्हीं चाँटि । एक अभागा रह गया एकन लीन्ही छाँटि ॥२४॥ विना वसीले चाकरी विना बुद्धि की देह । बिना ज्ञान का जोगना फिरै लगाए खेह ॥२५॥ समझा का घर और है अनसमझा का और। जा घर में साहव वसे विरला जानै ठौर ॥२६॥