( १३८ ) कपट कविरा तहाँ न जाइए जहाँ कपट का हेत । जानो कली अनार की तन राता मन स्वेत ।।५२०।। चित कपटी सब से मिले माहीं कुटिल कठोर । इक दुरजन इक पारसी आगे पीछे और ।।५२१॥ हेत प्रीति से जो मिले ताको मिलिए धाय । अंतर राखे जो मिले तास मिले बिलाय ॥५२२।। आशा पासा जीव जग मरे लोग मरै मन जाहि । धन संचै सो भी मरे उबरै सो धन खाहि ।।५२३।। श्रासन मारे का भया मुई न मन की श्रास । ज्यों तेली के बैल को घर ही कोस पचास ।।५२४।। पासा एक जो नाम की दूजी श्रास निरास । पानी माहीं घर करें सो भी मरे पियास ।।५२५।। कविरा जोगी जगत गुरु त जगत की श्रास । जो जग की पासा कर जगत गुरु वह दास ॥५२६।। श्रामा का ईधन कर मनसा कम भभृत । जागी फिरि फिर करें या बनि याचे सूत ।।५-७।। तृष्णा कविंग सा धन मंचिए जो धागे को होय । नीम चढ़ाए गाटरी जात न देग्या कोय ||५|| की प्रिन्ना है, दाकिनी यही जीवन का काल । और और निस दिन चह, जीवन र विहाल ।।५२९।। -
पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१५६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।