पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१५४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १३६ ) लोभ जव मन लागे लोभ सो गया विषय में सोय । कहै कवीर विचारि के कस भक्ती धन होय ॥४९७।। कविरा त्रिस्ना पापिनी तासों प्रोति न जोरि । पैड पैड पाछे परै लागे मोटी खोरि ॥४९८॥ कविरा आँधी खोपरी कबहूँ धापै नाहिं । तीन लोक की संपदा कव आत्रै घर माहिं ।।४९९।। आव गई आदर गया नैनन गया सनेह । ये तीनों तवही गए जवहिं कहा कछु देह ।।५००।। बहुत जतन करि कीजिए सव फल जाय नसाय । कविरा संचय सूम धन अंत चार ले जाय ।।५०१।। माह मोह फंद सब फाँदिया कोइ न सके निरवार । कोइ साधू जन पारखी विरला तत्त्व विचार ॥५०२।। मोह मगन संसार है कन्या रही कुमारि । काह मुरति जो नाकरी फिरिफिरि ले अवतारि।।५०३।। जह लग सब संसार है मिरग सवन को महि । सुरनर नागपताल अगऋषि मुनिवर.सब जाह ।।५०४।। सलिल मोह की धार में वहि गप गहिर गंभीर । मुञ्चम महरी सुरति है चढ़नी उलटे नीर ।।५०५।। अमृत करी मोटरी मिर में धरी उनारि । जाहि कहीं मैं एक हो मादि कई है. चारि ।।२०। जाको मुनिवर नप करें येद पद गुन गाय । माई देय सिग्यारना नहि काई पनि प्राय ॥५०॥