( १३५ ) कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय । भक्ति करै कोइ सूरमा जाति वरन कुल खोय ॥४८६ भक्ति विगारी कामियाँ इंद्री केरे स्वाद । हीरा खोया हाथ से जनम गँवाया वाद ॥४८७॥ जहाँ काम तहँ नाम नहिं जहाँ नाम नहिं काम | दोनों कवहूँ ना मिले रवि रजनी इक ठाम ॥४८८॥ काम क्रोध मद लोभ की जव लग घट में खान । कहा मुर्ख कह पंडिता दोनों एक समान ॥४८९॥ काम काम सब कोइ कहै काम न चीन्है कोय । जेती मन की कल्पना काम कहावें सोय ॥४९०॥ क्रोध कोटि परम लागे रहें एक क्रोध की लार । किया कराया सब गया जव आया हंकार ॥४९१॥ दसो दिसा से क्रोध की उठी अपरवल आगि । सीतल संगति साधु की तहाँ उवरिए भागि ॥४९२॥ कुबुधि कमानी चढ़ि रही कुटिल वचन का तीर। भरि भरि मारे कान में सालै सकल सरीर ॥४९३॥ कुटिल वचन सव से बुरा जारि करै तन छार। साध वचन जल रूप है बरसै अमृत धार ॥४९४॥ करक करेजे गड़ि रही वचन वक्ष की फाँस । निकसाए निकसै नहीं रही सो काहू गाँस ॥४९५॥ मधुर वचन हैं औषधी कटुक वचन हैं तीर । श्रवण द्वार है संचरै सालें सकल शरीर .॥४९॥
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