पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१५०

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( १३२ ) दुर्वल को न सताइए जाकी मोटी हाय । विना जीव की स्वाँस से लोह भसम लै जाय ॥४४८॥ कविरा आप ठगाइए और न ठगिए कोय । आप ठगा सुख होत है और ठगे दुख होय ॥४४९॥ या दुनिया में आइके छाँड़ि दे तू ऐंठ। लेना होइ सो लेइ ले उठी जात है पैंठ ॥४५०॥ ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय । औरन को सीतल करै आपहुँ सीतल होय ।।४५१॥ जग में वैरी कोई नहीं जो मन सीतल होय । या आपा को डारि दे दया करै सव कोय ॥४५२|| हस्ती चढ़िए ज्ञान की सहज दुलीचा डारि। स्वान रूप संसार है भूसन दे झख मारिः ।।४५३॥ बाजन देह जंतरी कलि कुकही मत छेड़। तुझे पराई क्या पड़ी अपनी आप निवेड़ ।।४५४॥ आवत गारी एक है उलटत होय अनेक । कह कवीर हि उलटिए वही एक ही एक ॥४५५॥ गारी ही सो ऊपजै कलह कष्ट श्री मीच । हारि चले सो साधु है लागि मरै सो नीच ॥४५६|| जैसा अनजल खाइए तैसा ही मन होय । जैसा पानी पीजिए तैसी वानी सोय ॥४५७|| माँगन मरन समान है मति कोइ माँगो भीख । माँगन ते मरना भला यह सतगुरु की सीख ।।४५८॥ उदर समाता श्रन्न लें तनहिं समाता चीर । अधिकहि संग्रह ना करें ताका नाम फकीर ।।४५९। कहते को कहि जान दे गुरु की सीख तु लेइ । माफट जन श्री स्वान का फिर जवाव मत देहाथ६०॥