पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१४९

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( १३३ ) जो कोइ समझै सैन में तासों कहिए वैन । सैन वैन समझे नहीं तासों कछू कहै न ॥४६॥ वहते को मत वहन दे कर गहि ऐचहु ठौर । कहा सुना माने नहीं वचन कहो दुइ और ॥४६२॥ सकल दुरमती दूर करि आछो जन्म वनाव। काग गमन गति छाँड़ि दे हंस गमन गति आव ॥४६३॥ मधुर वचन है औषधी कटुका वचन है तीर । स्त्रवन द्वार है संचरै साले सकल सरीर ॥४६॥ वोलत ही पहिचानिए साहु चार को घाट । अंतर की करनी सबै निकसै मुख की वाट ॥४६५॥ पढ़ि पढ़ि के पत्थर भए लिखि लिखि भए जो ईट । कविरा अंतर प्रेम की लागी नेक न छींट ॥४६॥ नाम भजो मन वसि करो यही बात है संत । काहे को पढ़ि पचि मरो कोटिन ज्ञान गरंथ ॥४६७॥ करता था तो क्यों रहा अव करि क्यों पछिताय । बोवे पेड़ बबूल का आम कहाँ ते खाय ॥४६॥ कविरा दुनिया देहरे सीस नवावन जाय । हिरदे माही हरि चर्स तू ताही लौ लाय ॥४६९॥ मन मथुरा दिल द्वारिका काया कासी जान । दस द्वारे का देहरा तामें ज्योति पिछान ।।४७०॥ पूजा सेवा नेम व्रत गुड़ियन का सा खेल । जव लग पिउ परसें नहीं तव लग संसय मेल ॥४७॥ तीरथ चाले दुइ जना चित चंचल मन चोर। एको पाप न उतरिया भन दस लाए जोर ॥४७२॥ न्हाए धोए क्या भया जो मन मैल न जाय । मीन सदा जल में रहै धोए बास न,जाय ॥४७३॥