( १३० ) मैं भँवरा तोहि वरजिया वन वन वास न लेय। अटकैगा कहुँ बेल से तडपि तड़पि जिय देय ॥४२३।। वाड़ी के विच भँवर था कलियाँ लेता वास । सो तो भँवरा उड़ि गया तजि बाड़ी की आस ॥४२॥ भय विनु भाव न ऊपजै भय विनु होय न प्रीति। जव हिरदे से भय गया मिटी सकल रस रीति ॥४२५॥ भय से भक्ति करै सबै भय से पूजा होय । भय पारस है जीव को निर्भय होय न कोय ।।४२६।। ऐसी गत संसार की ज्यों गाडर की ठाट । एक पड़ा जेहि गाड़ में सवै जायँ तेहि वाट ॥४२७॥ इक दिन ऐसा होयगा कोउ काहू का नाहिं। . घर की नारी को कहै तन की नारी जाहि ॥४२८॥ भँवर विलंबे वाग में वहु फूलन की आस । जीव विलंबे विपय में अंतहुँ चले निरास ॥४२९।। चलती चक्की देखि के दिया कवीरा रोय । दुइ पट भीतर आइके सावित गया न कोय ॥४३०॥ सेमर सुवना सेइया दुइ ढेंढी की आस । ढ्ढी फूटि चटाक दे सुवना चला निरास ॥४३१॥ धरती करते एक पग समुंदर करते फाल । हाथन परवत तौलते तिनहुँ खाया काल ॥४३२।। आज काल्ह दिन एक में इस्थिर नाहिं सरीर । कह कबीर कस राखिही काँचे वासन नीर ॥४३३।। माली श्रावत देखिकै कलियाँ करें पुकार । फूली फूली चुनि लिए काल्हि हमारी वार ।।४३४।। काँची काया मन अथिर थिर थिर काज करंत । ज्योज्यों नर निधड़क फिरत त्यों त्यों काल हसंत ।४३५॥
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