पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१३९

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( १२७ ) दासातन हिरदे नहीं नाम धरावे दास । पानी के पीए बिना कैसे मिटै पियास ॥३८६।। भुक्ति मुक्ति मागौं नहीं भक्ति दान दे मोहिं। और कोई याचौं नहीं निस दिन याची तोहिं ।।३८७।। काजर केरी कोठरी ऐसा यह संसार। . वलिहारी वा दास की पैठिके निकसन-हार ॥३८८॥ अनराते सुख सोचना राते नींद न आय । ज्यों जल छूटे मारी तलफत रैन विहाय ॥३८९॥ जा घट में साँई वसै सो क्यों छाना होय । जतन जतन करि दाबिए तो उँजियाला सोय ॥३९०॥ सव घट मेरा साँइयाँ सूनी सेज न कोय । वलिहारी वा दास की जा घट परगट होय ||३९२॥ - - भेष तत्व तिलक माथे दिया सुरति सरवनी कान । करनी कंठी कंठ में परसा पद निर्वान ||३९२॥ मन माला तन मेखला भय की करै भभूत । अलख मिला सब देखता सो जोगी अवधूत ।।३९३॥ तन को जोगी सव करै मन को विरला कोय । सहजै सब विधि पाइए जो मन जोगी होय ।।३९४१ हम तो जोगी मनहिं के तन के हैं ते और । मन का जोग लगावते दसा भई कछु और ।।३९५॥ चेतावनी : कविरा गर्व न कीजिए काल गहे कर केस । ना जानौं कित मारिहै क्या घर क्या परदेस ॥३९६।।