पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१३१

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( १२१ ) यह तन विप की वेलरी गुरु अमृत की खान । सीस दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान ॥३१५॥ कोटिन चंदा ऊगवें सूरज कोटि हजार। सतगुरु मिलिया वाहरे दीसत घोर अँधार ॥३१६।। सतगुरु पारस के सिला देखो सोच विचार । श्राइ पड़ोसिन ले चली दीयो दिया सँवार ।।३१७।। चौंसठ दीवा जोय के चौदह ांदा माहिं । तेहि घर किसका चाँदना जेहि घर सतगुरु नाहिं ।३१८॥ ताकी पूरी क्यों परै गुरु न लखाई बाट । ताको वेड़ा वूड़िहै फिर फिर अवघट घाट ||३१९।। - असद्गुरु गुरू मिला ना सिप मिला लालन खेला दाँव । दोऊ खूड़े धार में चढ़ि पाथर की नाव ॥३२०।। जानंता बूझा नहीं बूझि किया नहिं गौन । अंधे को अंधा मिला राह बतावे कौन ॥३२॥ वंधे को घंधा मिले छूटै कौन उपाय ।. कर सेवा निरबंध की पल में लेत छुड़ाय ||३२२।। वात वनाई जग ठगा मन परमोधा नाहिं ! कह कवीर मन ले गया लख चौरासी माहि ॥३२३॥ नीर पियावत का फिरै घर घर सायर वारि । तृपावंत जो होइगा पीगा झख मारि ॥३२४॥ सिष साखा बहुते किए सतगुरु किया न मित्त । चाले थे सत लोक को वीचहिं अटका चित्त ॥३२५॥