पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१२४

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डुबकी मारी समुंद में निकसा जाय अकास । गगन मँडल में घर किया हीरा पाया दास ॥२५५।। हरि हीरा क्यों पाइहै जिन जीवे की आस । गुरु दरिया सो काढ़सी कोइ मरजीवा दास ॥२५६।। खरी कसौटी नाम की खोटा टिकै न कोय । नाम कसौटी सो टिकै जीवत मिरतक होय ॥२५७॥ मरते मरते जग मुआ औरस मुश्रा न कोय । दास कवीरा यो मुत्रा बहुरि न मरना होय ।।२५८।। जा मरने से जग डरै मेरे मन आनंद । कव मरिहों कव पाइहौं पूरन परमानंद ॥२५९।। घर जारे घर ऊवरे घर राखे घर जाय । एक अचंभा देखिया मुश्रा काल को खाय ।।२६०।। रोड़ा भया तो क्या भया पंथी को दुख देय । साधू ऐसा चाहिए ज्यों पैड़े की खेह ।।२६।। खेह भई तो क्या भया उड़ि उड़ि लागे अंग । साधू ऐसा चाहिए जैसे नीर निपंग ।।२६।। नीर भया तो क्या भया ताता सीरा जोय । साधू ऐसा चाहिए जो हरि जैसा होय ॥२६।। हरी भया तो क्या भया करता हरता होय । साधू ऐसा चाहिए हरि भज निरमल होय ॥२६॥ निरमल भया तो क्या भया निरमल माँग ठौर । मल निरमल से रहित है ते साधू कोर और ॥२६५।। ढारस लखु मरजीव को धंसिके पैटि पताल । जीव अटक माने नहीं गहि ले निको लाल ।।२६६।।