( ११४ ) कथनी वदनी छाँड़ि के करनी सो चित लाय । नरहिं नीर प्याए विना कबहूँ प्यास न जाय ॥२३२।। करनी विन कथनी कथै अज्ञानी दिन रात । कूकर ज्यों भुंकत फिरै सुनी सुनाई बात ॥२३३।। लाया साखि वनाय कर इत उत अच्छर काट । कह कवीर कव लग जिए जूठी पत्तल चाट ॥२३४॥ पानी मिलै न श्राप को औरन वकसत छीर । आपन मन निसचल नहीं और बँधावत धीर ।।२३५॥ कथनी थोथी जगत में करनी उत्तम सार। कह कवीर करनी सवल उतरै भौ-जल पार ॥२३३॥ पद जोरै साखी कहै साधन परि गई रौस । काढ़ा जल पीवै नहीं काढि पियन की हौस ॥२३७।। साखी कहें गहै नहीं चाल चली नहिं जाय । सलिल मोह नदिया वहै पॉव नहीं ठहराय ॥२३८॥ मारग चलते जो गिरै ताको नाहीं दोस। कह कवीर वैठा रहै ता सिर करड़े कोस ।।२३९!। कहता तो वहुता मिला गहता मिला न कोई। सो कहता वहि जान दे जो नहिं गहता होइ ॥२४०।। एक एक निरवारिया जो निरवारी जाय । दुइ दुइ मुख का बोलना घने तमाचा स्वाय ॥२४॥ सुख की मीठी जो कहें हृदया है मति यान । कह कवीर तेहि लोग सो रामौ बड़े सयान ॥२४२।। जम कथनी तस करनियो जस चुंबक तन नाम । कह कवीर चुंबक बिना क्यों छूटे संग्राम ।।२४३।। श्रोता तो बरही नहीं वक्ता वदे मो बाद । श्रोता वक्ता पक घर तब कथनी को स्वाद ।।२४८।।
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