पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१०७

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सारग्राहिता. . साधू ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय । सार सार को गहि रहै थोथा देइ उड़ाय ॥ ७८ ॥ औगुन को तो ना गहै गुनही को लै वीन । , घट घट मँहकै मधुप ज्यों परमातम लै चीन ॥ ७९ ॥ हंसा पय को काढ़ि ले छीर नीर निरवार। ऐसे गहै जो सार को सो जन उतरै पार ॥ ८० ॥ छीर रूप सतनाम है नीर रूप व्यवहार । हंस रूप कोइ साध है तत का छाननहार ॥ ८१ ॥ समदर्शिता समदृष्टी सतगुरु किया दीया अविचल ज्ञान । जहँ देखौं तहँ एक ही दूजा नाहीं आन ॥ ८२ ॥ समदृष्टी सतगुरु किया मेटा जरत विकार । जहँ देखौं तहँ एक ही साहेव का दीदार ॥ ८३ ॥ समदृष्टी तव जानिए सीतल समता होय । सब जीवन की आतमा लखै एक सी सोय ॥ ८४॥ भक्तिं . . जव लग नाता जगत का तव लग भक्ति न होय । नाता तोड़े हरि भजै भक्त कहावै सोय ॥ ८५ ॥ भक्ति भेष बहु अंतरा जैसे धरनि अक़ास । भक्त लीन गुरु चरन में भेष जगत की आस । ८६ ॥