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गुरुदेव कौ अंग
भली भई जु गुर मिल्या,नहीं तर होती हाणि । दीपक दिष्टि पतंग ज्यूं, पड़तां पूरी जांणि ॥ १६ ॥ माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवैं पड़ंत । कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत ॥ २० ॥ सतगुर बपुरा क्या करैं, जे सिषही मांहै चूक । भावै त्यू प्रमोधि ले, ज्यूं बंसि बजाई फूक ॥ २१ ॥ संसै खाया सकल जुग, संसा किनहूँ न खद्ध । जे बेधे गुर अष्षिरां,तिनि संसा चुणि चुणि खद्ध ॥ २२ ॥ चेतनि चौकी बैसि करि, सतगुर दीन्हां धीर । निरभै होइ निसंक भजि, केवल कहै कबीर ।। २३ ॥ सतगुर मिल्या त का भया, जे मनि पाड़ी भोल। पासि बिनंठा कप्पड़ा, क्या करै बिचारी चोल ।। २४ ॥ बूड़े थे परि ऊबरे, गुर की लहरि चमंकि । भेरा देख्या जरजरा, ( तब ) ऊतरि पड़े फरंकि. ।। २५ ।। गुर गोबिंद तौ एक है, दूजा यहु प्राकार । प्रापा मेट जीवत मरै, तो पावै करतार ।। २६ ॥ कबीर सतगुर नां मिल्या, रही अधूरी सीष । स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगै भीष ।। २७ ।।
( २१ ) ख-प्रमोधिए । जांणे वास जनाई कूद । ( २२ ) ख-सैल जुग । ( २५ ) ख-जाजरा । ( २६ ) इस दोहे के भागे ख प्रति में यह दोहा है- कबीर सब जग यों भ्रम्या फिरै, ज्यूं रामे का रोज । • सतगुर थै सोधी भई, तब पाया हरि का पोज ॥ २७॥
( २७ ) इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-
कबीर सतगुर ना मिल्या, सुणीं अधूरी सीष । मूंड़ मुंडावैं मुकति कुं, चालि न सकई बीष ॥ २६ ॥