ना तलि तपति न ऊपर भागि, तोर हेत कहु कासनि लागि ।। कहै कबीर जे उदिक समान,ते नहीं मूए हमारे जान ॥ कैसा मृदुल मनोंमोहक चित्र है! इसका सहज माधुर्य किसे
न मोह लेगा। प्रकृति का प्रतिनिधि मनुष्य नलिनी है, जल ब्रह्म तत्त्व है। इसी में प्रकृति के नाना रूपों की उत्पत्ति होती है, यही पोषक तत्त्व है जो मनुष्य और नाना रूपों में स्वयं विद्यमान है। इस जल की शीतलता के सामने कोई ताप ठहर नहीं सकता। यह तत्त्व समझकर इस पोषण-सामग्री का उपयोग करनेवाला (अर्थात् ज्ञानी ) मर ही कैसे सकता है ?
औद्यानिक भाषा में सांसारिक जीवन की नश्वरता का कितना.
प्रभावशाली प्राभास नीचे लिखे दोहे में है-
मालन श्रावत देखि करि, कलियाँ करी पुकार । फूले फूले चुणि लिए,काल्हि हमारी बार ।।
और देखिए-
बाढ़ी श्रावत देखि करि,तरिवर डोलन लाग । हम कटे की कुछ नहीं,पंखेरू घर भाग ॥ बढ़ई काल है, वृक्ष का डोलना वृद्धावस्था का कंप है, पक्षी
आत्मा है। यह डोलना आत्मा को इस बात की चेतावनी देता है कि शरीर के नाश का दुःख न करके ब्रह्म तत्त्व में लीन होने का प्रबन्ध करो; पक्षी का घर भागना यही है। काटते समय पेड़ को. हिलते और वृद्धावस्था में शरीर को काँपते किसने नहीं देखा होगा। परंतु किस लिये वह हिलता-काँपता है, इसका रहस्य कबीर ही जान पाए हैं। यह प्राभास किसको नहीं मिलता, पर कितने हैं जो उसको समझ पाते हैं !
नाश नीची स्थितिवालों के लिये ही मुंह बाए नहीं खड़ा है,ऊँची
स्थितिवाले भी उसी घाट उतरेंगे इस बात का संकेत यह दोहा देता है-.