पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/७१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(५९)

कबीरदास के नाम से लोगों की जिह्वा पर जो यह पद- मो को कहाँ हूँढे बंदे मैं तो तेरे पास में । ना मैं देवल, ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में । बहुत दिनों से चढ़ा चला आ रहा है, उसका भी यही भाव है। जायसी ने यही भाव यों प्रकट किया है-- पिठ हिरदय मह भेंट न होई, को रे मिलाव, कही केहि रोई !! रहस्यमय उक्तियों की रहस्यात्मकता उनके लोकनियोजित शब्दार्थ में नहीं है। उस अर्थ को मानने से उसकी रहस्यात्मकता जाती रहती है; उनका संकेत मात्र ग्रहण करना चाहिए। मूर्ति को परमात्मा मानकर उसका पूजन इसी लिये करना चाहिए कि ईश्वर- प्राप्ति में आगे की सीढ़ी सहज में चढ़ सके, क्योंकि साधारणतः सब लोग परमात्मा या ब्रह्म का ठीक ठोक स्वरूप समझने में नितान्त. असमर्थ होते हैं। अतः मूर्तिपूजा के द्वारा मानों मनुष्य को ब्रह्म के भी साक्षात्कार की प्रारंभिक शिक्षा मिलती है। उससे आगे बढ़- कर सचमुच पत्थर को परमात्मा मानने में फिर कोई रहस्य नहीं रह जाता। ईसाइयों ने परमात्मा कं पितृत्व भाव की उसी समय इति- श्री कर दी जब ईसा को लौकिक अर्थ में परमात्मा या पवित्रात्मा का पुत्र मान लिया। राम और कृष्ण को साक्षात् परमात्मा ही मानने के कारण तुलसी और सूर में अवतारवाद की मूलीभूत रहस्यभावना नहीं आ पाई है । सखी संप्रदाय ने मनुष्यों को सचमुच स्त्री मानकर और उनके नाम भी स्त्रियों जैसे रखकर और यहाँ तक कि उनसे ऋतुमती स्त्रियों का अभिनय कराकर 'माधुर्य भाव' के रहस्य. वाद को वास्तववाद का रूप दे दिया। रहस्यवाद के वास्तववाद में पतित हो जाने के कारण ही सदुद्देश्य से प्रवर्तित अनेक धर्म-संप्र- दायों में इंद्रिय-लोलुपता का नारकी नृत्य देखने में आता है। रहस्य. वादी कवियों का वास्तववादियों से इसी बात में भेद है कि वास्तव-