पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/६७

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दृश्य रूपों का होता है। अपनी लगन से जो इस क्षेत्र में सिद्ध हो गए हैं उन्होंने जब जब अपनी अनुभूति का निरूपण करने का प्रयत्न किया है, तब तब अपनी उक्तियों को स्पष्टता देने में अपने आपको असमर्थ पाया है। कबीर ने स्पष्ट कह दिया है कि परमात्मा का. प्रेम और उसकी अनुभूति गूंगे का सा गुड़ है- (क ) अकथ कहानी प्रेम की, कछु कही न जाइ। गूंगे केरी सरकरा, बैठा मुसकाइ ॥ (ख) तजि बावै दाहिने विकार, हरि पद दिढ़ करि गहिये । कहै कबीर गूंगै गुड़ खाया. बूझै तो का कहिये ।। यही रहस्यवाद का मूल है। वेद और उपनिषदों में रहस्यवाद की झलक विद्यमान है। गीता में भगवान के मुँह से उनकी विभूति का जो वर्णन कराया गया है, वह भी अत्यंत रहस्यपूर्ण है। परमात्मा को पिता, माता, प्रिया, प्रियतम, पुत्र अथवा सखा के रूप में देखना रहस्यवाद ही है; क्योंकि लौकिक अर्थ में परमात्मा इनमें से कुछ भी नहीं है। आदर्श पुरुषों में परमात्मा की विशेष कला का साक्षात्कार कर उनको अवतार मानने के मूल में भी रहस्य- वाद ही है। मूर्ति को परमात्मा मानकर उसे मस्तक नवाना आदिम रहस्यवाद है। परमात्मा के पितृत्व की भावना बहुत प्राचीन काल के वेदेो हो में मिलने लगती है। ऋग्वेद की एक ऋचा में 'यो नः पिता जनिता यो विधाता' कहकर परमात्मा का स्मरण किया गया है। . वेदों में परमात्मा को माता भी कहा गया है-'वहि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ' परमात्मा के मातृ-पितृत्व से प्राणियों के भ्रातृत्व की भावना का उदय होता है-'प्रज्येष्ठासौ अकनिष्ठासौ एते संभ्रातरो'। बहुत पीछे के ईसाई ईश्वरवाद में परमात्मा के पितृत्व और प्राणियों के भ्रातृत्व की यही भावना पाई जाती