पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/६१

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हिंदू मुसलमान दोनों को खूब फटकारें सुनाई है। धर्म को वे आर्ड. बर से परे एक मात्र सत्य सत्ता मानते थे जिसके हिंदू मुसलमान आदि विभाग नहीं हो सकते। उन्होंने किसी नामधारी धर्म के बंधन में अपने आपको नहीं डाला,और स्पष्ट कह दिया है कि मैं न हिंदू हूँ न मुसलमान।।


जिस सत्य को कबीर धर्म मानते हैं,वह सब धम्मों में है। परंतु इस सत्य को सबने मिथ्या विश्वास और पाषंड से परिच्छन्न कर दिया है। इस बाहरी आडंबर को दूर कर देने से धर्मभेद से समस्त झगड़े,बखेड़े दूर हो जाते हैं,क्योंकि उससे वास्तव में धर्म- भेद ही नहीं रह जाता। फिर तो हिंदू-मुस्लिम ऐक्य का प्रश्न स्वयं ही हल हो जाता है। एक अलग धार्मिक संप्रदाय के रूप में कबीरपंथ तो कबीर के मूल सिद्धान्तों के वैसे ही विरुद्ध है जैसे हिंदू और मुसलमान धर्म, जिनका उन्होंने जी भर खंडन किया है।


धार्मिक सुधार और समाज सुधार का घनिष्ठ संबंध है। धर्म- सुधारक को समाजसुधारक होना ही पड़ता है। कबीर ने भी समाज सुधार के लिये अपनी वाणी का उपयोग किया है। हिंदुओं की जाति-पांति, छूआछूत, खान पान आदि के व्यव- हारों और मुसलमानों के चाचा की लड़की.ब्याहने, मुसलमानी प्रादि कराने का उन्होंने चुभती भाषा में विरोध किया है और इनके विषयं में हिंदू मुसलमान दोनों की जी भरकर धूल उड़ाई है। हिंदुओं के चौके के विषय में वे कहते हैं--

एकै पवन एक ही पांणी,करी रसोई न्यारी जानीं।
माटी सूं माटी ले पोती,लागी कहौ कहाँ धूं छोती॥'
धरती लीपि पवित्तर कीन्हीं;छोति उपाय लीक बिचि दीन्हीं।
याका हम सूं कहौ विचारा,क्यूँ भव तिरिहौ इहि आचारा॥


छूआछूत का उन्होंने इन शब्दों में खंडन किया है-

    घ