पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/५८

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कयामत तक सड़ा करता है जब तक कि प्राणो पुनरुज्जीवित होकर खुदावंद करीम के सामने अपने अपने कर्मों के अनुसार अनंत काल तक दोनख की आग में जलने अथवा बिहिश्त में हूरों और गिलमों का सुख भोगने के लिये पेश किए जाय। एक स्थान पर, 'उबरहुगे किस बोले' कहकर कबीर ने इसी विश्वास की ओर संकेत किया है। परंतु यह उन्होंने साधारण बोल चाल के ढंग पर कहा है, सिद्धांत के रूप में महीं। ये बाते कुछ उसी प्रकार कही गई हैं जिस प्रकार सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूमने के कारण दिन रात का होना मानने पर भी साधारण बोलचाल में यह कहना कि 'सूर्य उगता है'। सिद्धांत रूप से वे अनेक जन्म मानते हैं, 'जनम अनेक गया अरु प्राया' । इस जन्म में जो कुछ भोगना पड़ता है, वह पूर्व जन्म के कर्मों का ही फल है 'देखा कर्म कबोर का कछू पूरब जनम का लेखा'। कबीर ने यह तो कहा है कि सृष्टि के सृजन और लय का कारण परमात्मा है, परंतु उन्होंने यह नहीं कहा कि सृष्टि की रचना कैसे और किस क्रम से हुई है, कौन तत्व पहले हुआ और कौन पीछे। इस विषय में वे शंका मात्र उठाकर रह गए हैं, उसका समाधान ऊन्होंने नहीं किया- प्रथमे गगन कि पुहुमि प्रथमे प्रभू, प्रथमे पवन कि पाणीं। प्रथमे चंद कि सूर प्रयमे प्रभू, प्रथमे कौन विनाणीं ॥ प्रथमे प्राण कि प्यड प्रथमे प्रभू. प्रथमे रकत की रेत । प्रथमे पुरिष कि नारि प्रथमे प्रभू, प्रथमे बीज की खेत ॥ प्रथमे दिक्स कि रैणि प्रथमे प्रभू, प्रथमे पाप कि पुण्य । कहै कबीर जहाँ बसहु निरंजन, तहाँ कुछ त्राहि कि सुन्य । ऊपर हमने कबोर की रचना में वेदांत-सम्मत अद्वैतवाद की एक पूरी पूरी पद्धति के दर्शन किए हैं जिसे हम शुद्धाद्वैत नहीं मान सकते। शुद्धाद्वैत में माया ब्रह्म की ही शक्ति मानी जाती है, परंतु