पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/५७

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ना जसरथ घरि औतरि श्रावा, ना लंका का राव सतावा । देवै कूष न श्रौतरि आवा, ना जसवै गोद खिलावा ।। ना वो ग्वालन कै सँग फिरिया, गोवरधन ले न कर धरिया ॥ बावन होय नहीं बलि छलिया, धरनी वेद ले न उधरिया । गंडक सालिकराम न कोला, मछ कछ ह्र जलहि न डोला ।। बद्री वैस्य ध्यान नहिं लावा, परसराम है खत्री न सतावा । प्रतिमा-पूजन के वे घोर विरोधी थे। जिस परमात्मा का कोई प्राकार नहीं, देश-काल का जिसके लिये कोई आधार आवश्यक नहीं, उसकी मूर्ति कैसी ? जगह जगह पर उन्होंने मूर्तिपूजा के प्रति अपनी अरुचि प्रदर्शित की है- हम भी पाहन पूजते, होते बन के रोझ । सतगुरु की किरपा भयी, डारथा सिर थें बेझि ॥ सेवें सालिगराम कुँ, मन की भ्रांति न जाइ । सीतलता सुपिनें नहीं, दिन दिन अधकी लाइ ।। जिसका प्राकार नहीं, उसकी मूर्ति का सहारा लेकर उसकी प्राप्ति का प्रयत्न वैसा ही है जैसे झूठ के सहारे सच तक पहुँचने का प्रयत्न । असत्य से मन की भ्रांति बढ़ेगो हो, घट नहीं सकती; और उससे जिज्ञासा की तृप्ति होना तो असंभव हो है। ____ मूर्ति-पूजा में भगवान की मूर्ति को जो भोग लगाने की प्रथा है, उसकी वे इस तरह हँसी उड़ाते हैं-- लाडू लावर लापसी पूजा चढ़े अपार। पूजि पुजारा ले चला दे मूरति के मुख छार ॥ यद्यपि कबीर अवतारवाद और मूर्तिपूजा के विरोधी थे, तथापि हिंदू मत की कई बातें वे पूर्णतया मानते हैं। हिंदुओं का जन्म मरण संबंधी सिद्धांत वे मानते हैं। मुसलमानों की तरह वे एक ही जन्म नहीं मानते. जिसके बाद मरने पर प्राणी कल में पडा पडा