पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/५३

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के प्रतिकूल है। वैष्णवों में सदा से सिद्धांत और व्यवहार में भेद रहा है। सिद्धांतरूप से रामानुजजी ने विशिष्टाद्वैत,बल्लभाचार्यजी ने शुद्धाद्वैत और माधवाचार्य ने द्वैत का प्रचार किया; पर व्यवहार के लिये सगुण भगवान की भक्ति का ध्येय ही सामने रखा गया। .

 सिद्धांत पक्ष का अज्ञेय ब्रह्म व्यवहार पक्ष में जाने बूझ मनुष्य

के रूप में आ बैठा। हम दिखला चुके हैं कि कबीर अपने को वैष्णव समझते थे। परंतु सिद्धांत और व्यवहार का, कथनी और करनी का भेद वे पसंद नहीं कर सकते थे;अतएव उन्होंने दोनों का मिश्रण कर अपनी निर्गुण भक्ति का भवन खड़ा किया जिसका मुसलमानी खुदावाद से भी बाहरी मेल था।

  ज्ञानमार्ग के अनुसार निर्गुण निराकार ब्रह्म शुष्क चिंतन का विषय

है। कबीर ने इस शुष्कता को निकालकर प्रेमपूर्ण चिंतन की व्यवस्था की है। कबीर के इस प्रेम के दो पक्ष हैं, पारमार्थिक और ऐहिक । पारमार्थिक अर्थ में प्रेम का अर्थ लगन है जिसमें मनुष्य अपनी वृत्तियों को संसार की सब वस्तुओं से विमुख करके समेट लेता है और केवल ब्रह्म के चिंतन में लगा देता है। और ऐहिक पक्ष में उसका अभिप्राय संसार के सब जीवों से प्रेम और दया का व्यवहार करना है।

 जिन्हें ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है केवल वेही अमर हैं;

जन्म मरण का भय उन्हें नहीं रह जाता। उनके अतिरिक्त और सब नश्वरं है। कबीरदास कहते हैं कि मुझे ब्रह्म का साक्षात्कार हो गया है, इसी लिये वे अपने आपको अमर समझते हैं ।

   हम न मरै मरिहै संसारा, हम . मिल्या जिवावनहारा ।
   अब न मरौं मरनै मन मानां, तेई मुए जिन राम न जानां ।

मनुष्य की आत्मा ब्रह्म के साथ एक है और ब्रह्म ही एक मात्र चिर-स्थायी सत्ता है जिसका नाश नहीं हो सकता। अतएव मनुष्य की आत्मा का भी नाश नहीं हो सकता,यही कबीर के अमरत्व का रहस्य है-