पर वह सोना ही रहता है उसी प्रकार नामरूपात्मक दृश्यों की
— उत्पत्ति ब्रह्म से होती है और ब्रह्म ही में वे समा जाते हैं-
जैसे बहु कंचन के भूषन ये कहि गालि तवावहिँगे।
ऐसे हम लोक वेद के बिछुरे सुन्निहि माहि समायहिं गे॥
इसी प्रकार का जलतरंग-न्याय भी है-
जैसे जलहिं तरंग तरंगनी ऐसें हम दिखलावहिंगे।
कहै कबीर स्वामी सुख सागर हंसहि हंस मिलावहिँ गे॥
एक और तरह से कबीर ने भारतीय पद्धन्ति से यह संबंध
प्रदर्शित किया है-
जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है, बाहरि भीतरि पानी ।
फूटा कुंभ जल जलहि समानां, यह तत कथौ गियानी ॥
यह नाम-रूपात्मक दृश्य जो चर्म-चतुओं को दिखाई देता है,
जल में का घड़ा है जिसके बाहर भी ब्रह्मरूप वारि है और अंदर
भी। बाह्य रूप का नाश हो जाने पर घड़े के अंदर का जल जिस
प्रकार बाहरवाले जल में मिल जाता है उसी प्रकार बाह्य रूप के
अभ्यंतर का ब्रह्म भी अपने बाह्यस्थ ब्रह्म में समा जाता है।
सब प्रकार से यही सिद्ध किया गया है कि परिवर्तनशील
नाशवान दृश्यों का अध्यारोप जिस एक अव्यय तत्त्व पर होता है,
वही वास्तव है। जो कुछ दिखाई देता है, वह असत्य है, केवल
मायात्मक भ्रांतिज्ञान है। यह बात कबीर ने स्पष्ट ही कह दी है-
संसार ऐसा सुपिन जैसा जीव न सुपिन समान।
जो मनुष्य माया के इस पसार को सच्चा समझकर उसमें लिपट
जाता है, उसे शुद्ध हंस स्वरूप जीव अर्थात् ब्रह्म की प्राप्ति नहीं
हो सकती।
बुद्धदेव के 'दुःख सत्य' सिद्धांत के समान ही कबीर का भी
सिद्धांत है कि यह संसार दुःख ही का घर है-
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