पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/४५

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को वे अब भी समान समझते थे। अपनी मुक्ति के संबंध में उन्हें तनिक भी संदेह नहीं था, क्योंकि उन्हें परमात्मा की सर्वशता में अटल विश्वास था 'शिव सम को जान', और राम नाम का जाप, करते करते वे शरीर त्यागने जा रहे थे । 'मुत्रा कबीर रमत श्री राम।' उनकी अंत्येष्टि क्रिया के विषय में एक बहुत ही विलक्षण प्रवाद प्रसिद्ध है। कहते हैं कि हिन्दू उनके शव का अग्नि-संस्कार करना चाहते थे और मुसलमान उसे कब्र में गाड़ना चाहते थे। झगड़ा यहाँ तक बढ़ा कि तलवारें चलने की नौबत आ गई। पर हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य के प्रयासी कबीर की आत्मा यह बात कब सहन कर सकती थी। उस आत्मा ने आकाशवाणी की 'लड़ो मत! कफन उठाकर देखो'। लोगी ने कफन उठाकर देखा तो शव के स्थान पर एक पुष्प-राशि पाई गई जिलको हिन्दू मुसलमान दोनों ने आधा आधा बाँट लिया। अपने हिस्से के फूलों को हिन्दुओं ने जलाया और उनकी राख को काशो ले जाकर समाधिस्थ किया। वह स्थान अब तक कबीर-चौरा के नाम से प्रसिद्ध है। अपने हिस्से के फूलों के ऊपर मुसलमानों ने मगहर ही में कब्र बनाई। यह कहानी भी विश्वास करने योग्य नहीं है परंतु इसका मूल भाव अमूल्य है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, कबीर ने चाहे जिस प्रकार हो, रामानंद से रामनाम की दीक्षा ली थी; परन्तु कबीर के राम . रामानंद के राम से भिन्न थे। वे 'दुष्टदलन ताविक सिद्धांत ' रघुनाथ' नहीं थे जिनके सेवक 'अंजनि-पुत्र महाबलदायक, साधु संत पर सदा सहायक' थे। राम से उनका अभिप्राय कुछ और ही था। दशरथः सुत तिहुँ लेक खाना । राम नाम का मरम है पाना ॥ राम से उनका तात्पर्य निर्गुण ब्रह्म से है। उन्होंने 'निरगुण राम निरगुण राम जपहु रे भाई' का उपदेश दिया है। उनकी राम-