पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/४३

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जिनकी पाप की बेड़ियाँ कट चुकी थीं उन्हें ये जंजीरें बाँधे न रख सकी और वे तैरते हुए नदो तट पर प्रा खड़े हुए। अव काजी ने उन्हें धधकते हुए अग्निकुंड में डलवाया। किंतु उनके प्रभाव से आग बुझ गई और कबीर की दिव्य देह पर आँच तक न आई। उनके शरीर-नाश के इस उद्योग के भी निष्फल हो जाने पर उन पर एक मस्त हाथी छोड़ा गया। उनके पास पहुँचकर हाथी उन्हें नमस्कार कर चिघाड़ता हुआ भाग खड़ा हुआ। इस कथा का आधार कबीर का यह पद कहा जाता है- अहो मेरे गोब्यद नुम्भरा जोर, काजी बकिया हस्ती तोर ।। वाधि भुजा भलै करि डारबो, हस्तो कोपि नड़ में मारयो । भाग्यो हस्ती चीला मारी, वा मूरति की मैं बलिहारी ।। महापत तो मारों ग्रांटी, इसहि मराऊँ घाली काटी ।। इस्ती न नारे धरै धियान, बाकै हिरदै बसे भगान ॥ कहा अपराध संत है। कीन्हां, बांधि पोट कुंजर कू दीन्हां ।। कुंजर पोट बहु वंदन करे, अजहुँ न सूझै काजी अँधरै ।। तीनि धेर पतियारा लीन्हां, मन कठोर अजहूँ न पतीनां । कहै कबीर हमारै गोव्यंद, चाये पद मैं जन को गयंद ।। परंतु यह पद प्राचीन प्रतियों में नहीं मिलता। यदि यह कबीरजी का ही कहा हुआ है तो इस पद से केवल यह प्रकट होता है कि उनको मारने के तीनों प्रयत्न हाथो ही के द्वारा किए गए थे, क्योंकि इसमें उनके नदी में फेंके जाने या आग में जलाए जाने का कोई उल्लेख नहीं है। ग्रंथ-साहब में कबीरजी का यह पद भी मिलता है जो गंगा में जंजीर से बाँधकर फेंके जानेवाली कथा से संबंध रखता है। गंग गुसाइन गहिर गंभीर । जंजीर बोधि करि खरे कबीर । गंगा की लहरि मेरी टूटी जंजीर । मृगछाला पर बैठे कबीर ।।