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कबीर-ग्रंथावली

सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि ।। २१४ ।।
हज हमारी गोमती तीर । जहाँ बसहि पीतम्बर पीर ।
वाहु वाहु क्या खूब गावता है :हरि का नाम मेरे मन भावता है।।
नारद सारद करहि खवासी । पास बैठी विधी कवला दासी ।।
कंठे माला जिहवा राम । सहस नाम लै लै करौ सलाम ।
कहत कबीर रांम गुन गावौ। हिंदू तुरक दोऊ समझावे।।।२१।।

हम घर सून नाहि नित ताना कंठ जनेऊ तुमारे ।
तुम तो वेद पढ़हु गायत्री काबिंद रिदै हमारे ।।
मरी जिहवा विष्ए नयन नारायण हिरदै बसहि गोविंदा ।
जा दुधार जब पूलसि बबर तब क्या कहसि मुझंदा ।
धम गे!रू तुम यार तुसाइ जनम जनम रखवारे ।
काहू न पार उतार चाइह कैसे ग्बमम हमारे ।
तूं बाहान मैं कासी का जुलहा बुझनु मोर गिवाना .
तुम तौ पाचे भूपति राजे हरि सो मोर विवाना ।। २१६ ।।

हम मसकीन खुदाः बन्दे तुम राजसु मन भावै ।
अल्लह अवलि दीन के.साहिब जोर नहीं फरमावै ।।
काजी बोल्या बनि नही आवै ।।
रोजा धरै निवाजु गुजार कन्नमा भिस्त न हाई।
मत्तरि कावा घटही भीतर जे करि जानै काई ।।
निवाजु साई जो न्याइ विचारै कलमा अकलहि जानै !
पाँचहु मुसि मुसला बिछावै तब तौ दीन पछानै ।।
खसम पछानि तरस करि जीय महि मारि मणी करि फांकी ।
आंप जनाइ और को जानै तब होइ भिस्त सरीकी ।।
माटी एक भेष धरि नाना तामहिं ब्रह्म पछाना ।
कहै कबीरा भिस्त छोड़ि करि दोजक स्यों मन माना ॥२१७।।