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परिशिष्ट

संतन स्यो बोले उपकारी । मूरख स्यों बोले झख मारी॥
बोलत बोलत बढ़हि बिकारा। बिनु बोले क्या करहि बिचारा
कहु कबीर छूछा घट बोलै।भरिया होइ सु कबहु न डोलै।।१८५..
संतहु मन पवनै सुख बनिया।किछु जोग परापति गनिया॥
गुरु दिखलाई मोरी । जितु मिरग पड़त है चारी ।।
मूंदि लिये दरवाजे । बाजिले अनहद बाजे ।।
कुंभै कमल जल भरिया । जल मेट्या ऊभा करिया ।।
कहु कबीर जन जान्या।जौ जान्या तौ मन मान्या।। १६७

संता मानौ दृता डानौ इह कुटवारी मेरी ।
दिवस रैन तेरे पाउ पलोसौ केस चवर करि फेरी ।।
हम कृकर तेरे दरबारि । भौकाई आगे बदन पसारि ।।
पूरब जनम हम तुम्हरै सेवक अब तौ मिट्या न जाई ।
तेरे द्वारे धुनि सहज की मथै मेरे दगाई ॥
दाग होहि सुरन महि जूझहि विनु दागे भगि जाई।
साधू हाई सुभ गति पछानै हरि लये खजानै पाई ।।
काष्ठरे महि कोठरी परम काठरी बिचारि ।
गुरु दीनी बस्तु कबीर कौ लेवहु बस्तु सम्हारि ।।
कबीर दाई संसार कौ लीनी जिसु मस्तक भाग।
अमृत रस जिन पाइया थिरता का सोहाग ॥ १६८ ।।

संध्या प्रात स्नान कराही । ज्यौ भये दादुर पानी माही ।।
जो पै रांम नांम रति नाही । ते सबि धर्मराय के जाही।
काया रति बहु रूप रचाही । तिन कै दया सुपनै भी नाही ।।
चार चरण कहहिं बहु अगर । साधू सुख पावहि कलि सागर ।
कहु कबीर बहु काय करीजै । सरबस छोड़ि महा रस पीजै ॥१६॥

सत्तरि सै इसलारू है जाके । सवा लाख पै कावर ताके ।।
सेख जु कही यहि कोटि अठासी ।छप्पन कोटि जाके खेल खासी॥