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कबीर-ग्रंथावली

दिल मैहि कपट निवाज गुजारहु क्या हज काबै जाया।।
तू नापाक पाक नहीं सुझया तिसका मरम न जान्या ।
कहि कबीर भिस्त ते चूका दोजक स्यों मन मान्या ॥१६२॥
बेद की पुत्रो सिंमृति भाई । साँकल जेवरी लैहै आई ॥
आपन नगर अाप ते बाँध्या। मोह कै फाधि काल सरु साध्या ।
कटी न कटै तूटि नह जाई । सो सापनि होइ जग कौ खाई ।।
हम देखत जिन्ह सब जग लूया। कहु कबीर मैं राम कहि छुट्या।।१६३।।

बेद पुरान सबै मत सुनि के करी करम की आसा ।
काल ग्रस्त सब लोग सियाने उठि पंडित पै चले निरासा ।।
मन रे सखो न एकै काजा । भज्यो न रघुपति राजा ।।
बन खंड जाइ जोग तप कीनो कंद मुल चुनि वाया। '
नादी बेदी सबदी मौनी जम के परै लिखाया ।।
भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तन दीना ।
राग रागनी डिंभ होइ बैठा उन हरि पहि क्या लीना ।।
परयो काल सबै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम ज्ञानी ।
कहु कबीर जन भये खलासे प्रेम भगति जिह नानी ॥१६४।।

पट नेम कर कोठड़ी बाँधी वस्तु अनूप बीच पाई ।
कुंजी कुलफ प्रान करि राखे करते बार न लाई ।।
अब मन जागत रहु र भाई।
गाफिल हाय कै जनम गवायो चौर मुसै घर जाई ।।
पंच पहरुमा दर महि रहते तिनका नहीं पतियारा ।
चेति सुचेत चित होइ रहु तौ लै परगासु उजाय ।।
नव वर देखि जु कामनि भूली बस्तु अनूप न पाई।
कहत कबीर नवै घर मूसे दसवें तत्त्व समाई ।। १६५।।

संत मिलै किछु सुनिये कहियै । मिलै असंत षष्ट करि रहियै ।।
बाबा बोलना क्या कहियै । जैसे रांम नांम रमि रहियै।।