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परिशिष्ट

बोलहु भइया रांम की दुहाई।
पीवहु संत सदा मति दुर्लभ सहजे प्यास बुझाई ।।
भय बिच भाउ भाई को बूझहि हरि रस पावै भाई ।
जेते घट अमृत सवही महि भावै तिसहि पियाई ।।
नगरी एकै नव दरवाजे धारत बर्जि रहाई ।
त्रिकुटी छूटै दस बादर खुलै ताम न ग्वीवा भाई ।।
अभंय पद पूरि ताप तह नास कहि कबोर बोचारी ।
उवट चलंते इहु मद पाया जैसे खोद खुमारी ।। १८१ ॥

रे जिय निलज्ज लाज तोहि नाही। हरि तजि कत काहू के जाही।।
जाकौ ठाकुर ऊँचा हौ ! सो जन पर घर जात न सोही ।
सो साहिब रहिया भरपूरि । सदा संगि नाही हरि दूरि ।।
कवला चरन सरन है जाके। कह जन का नाही घर ताके ।।
सब को कहै जाम की बाता। जो मम्म्रथ निज पति है दाता ।।
कहै कबीर पूरन जग सोई। जाकै हिरदै अबरु न होई ॥ १८२ ।।

रे मन तेरो कोइ नहीं खिचि लेइ जिन भार ।
बिरख बसेंगें पंखि कौ जैसो। इहु संसार ।
नांम रस पीया रे : जिह रस बिमरि गये रस और ।।
और मुयं क्या रोइये तौ आपा थिर न रहाइ ।
जो उपजै सो बिनसिह दुख करि रोवै बलाइ ।।
जह की उपनी तह रची पीवत मरद न लाग।
कह कवीर चित चेतिया राम सिमिर वैराग ।। १८३ ।।

रोजा घरै मनावै अल्लहु स्वादति जीय संघारै ।
आपा देखि अवर नहीं देखै काहे को झख मारै ।
काजी साहिब एक तोही महि तेरा सोच विचार न देखै।
खबरि न करहि दीन के बारे ताते जनम अलेखै ।।
सांच कतेव वखाने अल्लहु नारि गुरुप नहि कोई ।