पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/४०१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२७
परिशिष्ट

बुद्धि बिभूति चढ़ाऔ अपनी सिंगी सुरति मिलाई ।
करि बैराग फिरौ तन नगरी मन की किंगुरी बजाई ।
पंच तत्व लै हिरदै राखहु रहै निराल मताड़ी।
कहत कबीर सुनहु रे संतहु धर्म दया करि बाढ़ी ।। १६५ ॥

मुसि मुसि रोवै कबीर की माई । ए बारिक केसे जीवहि रघुर
तनना बुनना सब तज्यो है कबीर।हरि का नाम लिखि लियो सरीर॥
जब लगे तागा वाहउ बेही । तब लग विसरै रांम सनेही ॥
ओछी मति मेरी जाति जुलाहा । हरि का नाम लह्यो मैं लाहा ।।
कहत कबीर सुनहु मेरी माई ।हमरा इनका दाता एक रघुराई।१६६।।

मेंरी बहुरिया को धनिया नाउ । ले राख्यो रांम जनिया नाउ ।।
इन मुंडियन मेरा घर धुधरावा । विटवहि राम रौश्रा लावा ॥
कहत कबीर सुनहु मेरी माई : इन मुंडियन मेरी जाति गवाई ॥१६७।।
मैना ब्रह्मा मैला इन्दु । रवि मैला है मैला चंदु ॥
मला मलता इहु संसार । इक हरि निर्मल जाका अन्त न पार ।।
मला ब्रह्मडा इयौ ईस । मैले निसि बातुर दिन तीस ॥
मैला मोती मैला हीरु । मैला पवन पावक अरु नीरु ॥
मैलं सिव संकरा महेम । मैले सिध साधिक अरु भेष ॥
मैलं जोगी जगम जटा समेति । मैली काया हंस समेति ॥
कहि कबीर ते जन परवान । निर्मल तं जो रामहि जान ॥ १६८।।

मौलो धरती मौला पाकास । घटि घटि मौलिया आतम प्रगास ।।
राजा राम मौलिया अनत भाइ । जह देवौ तह रहा समाइ ।।
दुतिया मौले चारि बेद । सिंमृति मौलो सिउ कतेब ।।
संकर मौल्यो जोग ध्यान । कबीर को स्वामी सब समान ॥१६६।।

जम ते उलटि भये है राम । दुख बिनसे सुख कियो बिस्राम ।।
बैरी उलटि भये हैं मीता । साकत उलटि सुजन भये चीता ।।
अब मोहि सर्व कुसल करि मान्या ।सान्ति भई जब गोबिद जान्या।।