पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/४०

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धर्मदास और सुरत गोपाल नाम के कबीर के दो चेले हुए। धर्मदास बनिए थे। उनके विषय में लोग कहते हैं कि वे पहले - शिष्य मूर्तिपूजक थे; उनका कबीर से पहले पहल - काशी में साक्षात्कार हुआ था। उस समय कबीर ने उन्हें मूर्तिपूजक होने के कारण खुब फटकारा था। फिर वृंदावन में दोनों की भेंट हुई। उस समय उन्होंने कबीर को पहचाना नहीं; पर बोले-"तुम्हारे उपदेश ठोक वैसे ही हैं जैसे एक साधु ने मुझे काशी में दिए थे।” इस समय कबीर ने उनकी मूर्ति को, जिसे वे पूजा के लिये सदैव अपने साथ रखते थे, जमुना में डाल दिया। तीसरी बार कबोर स्वयं उनके घर बांदोगढ़ पहुँचे । वहाँ उन्होंने उनसे कहा कि तुम उसी पत्थर की मूर्ति पूजते हो जिसके तुम्हारे तौलने के बाट हैं। उनके दिल में यह बात बैठ गई और वे कबीर के शिष्य हो गए। कबीर की मृत्यु के बाद धर्म- दास ने छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ की एक अलग शाखा चलाई और सुरत गोपाल काशीवाली शाखा की गद्दी के अधिकारी हुए। धोरे धोरे दोनों शाखाओं में बहुत भेद हो गया। ___कबीर कर्मकांड को पाखंड समझते थे और उसके विरोधी थे; परंतु आगे चलकर कबीरपंथ में कर्मकांड की प्रधानता हो गई। कंठी और जनेऊ कबीर पंथ में भी चल पड़े। दीक्षा से मृत्यु पर्यंत कबीरपंथियों को कर्मकांड की कई क्रियाओं का अनुसरण करना पड़ता है। इतनी बात अवश्य है कि कबीर पंथ में जात पात का कोई भेद नहीं और हिंदू मुसलमान दोनों धर्म के लोग उसमें सम्मि- लित हो सकते हैं। परंतु ध्यान रखने की बात यह है कि कबीर पंथ में जाकर भी हिंदू मुसलमान का भेद नहीं मिट जाता। हिंदू धर्म का प्रभाव इतना व्यापक है कि उससे अलग होने पर भी भार. तीय नए नए मत अन्त में उसके प्रभाव से नहीं बच सकते ।