पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३९९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
.
३१५
परिशिष्ट

मन करि मक्का किबला करि देही । बोलनहार परस गुरु एही ॥
कहु रे मुल्ला बांग निवाज । एक मसीति दसै दरवाज ॥
मिसिमिलि तामसु भर्म क दूरी । भाखि ले पंचे होइस बूरी ॥
हिन्दू तुरक का साहिब एक । कह करै मुल्ला कह करे मेख ।।
कहि कबीर है। भया दिवाना।मुसि मुसि मनुष्या सहजिसमाना१५७।।

मन का स्वभाव मनहि बियापो । मनहि मारि कवन सिधि थापी ।।
कवन सु मुनि जो मन को मारै । मन कौ मारि कहहु किस तारै।।
मन अंतर बोलै सब कोई । मन मारै बिन भगति न होई ॥
कहु कबीर जो जानै भेउ । मन मधुसूदन त्रिभुवण देउ ॥ १५८ ।।

मन रे छाडहु भर्म प्रकट होइ नाचहु या माया के डाड़े।
सर किसन मुखरन ते डरपै सती कि साँचै भांडे ॥
डगमग डांडि रे मन बौरा ।
अब तो जरै मरै सिधि पाइयै लीनो हाथ सिंधोरा ॥
काम क्रोध माया के लोने या बिधि जगत बिगूचा ।
कहि कबीर राजा रांम न छोड़ौ सगल ऊँच ते ऊँचा ॥ १५६ ॥

माता जूठी पिता भी जूठा जूठेही फल लागे ।
आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे ।
कहु पंडित सूचा कवन ठाउ।जहाँ बैसि हौ भोजन खाउ।।
जिहबा जूठो बोलत जूठा करन नेत्र सब जूठे ।
इंद्रो की जुठो उतरसि नाहि ब्रह्म अगनि के जूठे ।।
अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइया ।
जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइया ।
गोबर जूठा चौका जूठा जूठो दीनी करा ।
कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा ॥ १६०॥

मरन जीवन की संका नासी । आपन रंगि सहज परगासी ।।
प्रकटी ज्योति मिट्या अँधियारा : राम रतन पाया करत बिचारा।