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कबीर-ग्रंथावली

नन्ना निसि दिन निरखत जाई । निरखत नयन रहे रतवाई ॥
निरखत निरखत जब जाइ पावा। तबले निरखहि निरख मिलावा ।।
पप्पा अपर पार नहीं पावा । परम,ज्योति स्यो परचौ लावा ।।
पाँचो इंद्री निग्रह करई । पाप पुण्य दोऊ निरबरई ।।
फफ्फा बितु फूलै फल होई। ता फल फंक लखैं जौ कोई ।।
दूणि न परई फंक बिचारै। ता फल फंक सबै तन फारै ।।
बम्बा बिंदहि बिंद मिलावा । विंदहि बिंद न बिछुरन पात्रा।
बंदौ होइ बन्दगी गहै। बंधक होइ बंधु सुधि लहै ।।
भम्भा भेदहि भेद मिलावा । अब भौ भानि भरोसौ आवा ।।
जो बाहर सो भीतर जान्या । भया भेद भूपति पहिचान्या ।
मम्मा मूल रह्या मन मानै । मर्मी होइ सो मन कौ जानै ।।
मत कोइ मन मिलता विलमावै मगन भया तेसो सचुपावै ।।
मम्मा मन स्यो काजु है मन साधे सिधि हाइ ।
मनही मन स्यो कहै कवोरा मनसा मिल्या न कोइ ।।
इहु मन सकती इहु मन सीउ । इहु मन पंच तत्त्व को जीउ ।
इहु मन ले जौ उनमनि रहै । तौ तीनि लोक की बातै कहै ।।
यय्या जौ जानहि तौ दुर्मति हनि करि वसि काया गाउ।
रणि रूतौ भाजै नहीं सुर उघारौ नाउ ।।
रारा रस निरम्स करि जान्या । हाइ निरस्म सुरस पहिचान्या ।।
इह रस छाड़े उह रस आवा । उह रस पीया इह रस नहीं भावा।।
लल्ला ऐसे लिव मन लावै । अनत न जाइ परम सचुपावै ।।
अरु जौ तहा प्रेम लिव लावै । तौ अलह लहै माहि चरन समावै।।
ववा बार बार विष्णु समारि । विष्णु समारि न आवै हारि ।।
बलि बलि जे विष्णु तना जस गावै। बिष्णु मिलै सबही सचुपावै ।।
वावा वाही जानियै वा जाने इहु होइ ।।
इहु अरु ओहु जब मिलै तब मिलत न जानै कोइ ॥