"माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड्त ।
कहैं कबीर गुरु ग्यान थै, एक आध उबरंत ॥"
मुसलमान कबीरपंथियों का कहना है कि कबीर ने सूफी फकीर शेख तको से दीक्षा ली थी। कबीर ने अपने गुरु के बनारस- निवासी होने का स्पष्ट उल्लेख किया है। इस कारण ऊँनी के पौर और शेख तकी उनके गुरु नहीं हो सकते। 'घट घट है अविनासी सुनहु तकी तुम शेख' में उन्होंने तकी का नाम उस आदर से नहीं लिया है जिस आदर से गुरु का नाम लिया जाता है और जिसके प्रभाव से कबीर ने असंभव का भी संभव होना लिखा है --
गुरु प्रसाद सूई के नाकै हस्ती श्रावै जाहि ॥
बल्कि वे तो उलटे तकी को ही उपदेश देते हुए जान पड़ते हैं। यद्यपि यह वाक्य इस ग्रंथावली में कहीं नहीं मिलता फिर भी स्थान स्थान पर "शेख' शब्द का प्रयोग मिलवा है जो विशेष आदर से नहीं लिया गया है वरन् जिसमें फटकार की मात्रा ही अधिक देख पड़ती है। अतः तकी कबीर के गुरु तो हो नहीं सकते, हाँ यह हो सकता है कि कबीर कुछ समय तक उनके सत्संग में रहे हों, जैसा कि नीचे लिखे वचनों से भी प्रकट होता है। पर यह स्वयं कबीर के वचन हैं, इसमें भी संदेह है —
मानिकपुरहि कबीर बसेरी मदहति सुनि शेख तकि केरी ।
ऊजी सुनी जौनपुर थाना झूसी सुनि पोरन के नामा ॥
परंतु इसके अनंतर भी वे जीवन पर्यंत राम नाम रटते रहे जो स्पष्टतः रामानंद के प्रभाव का सूचक है। अतएव स्वामी रामानंद को कबीर का गुरु मानने में कोई अड़चन नहीं है; चाहे उन्होंने स्वयं उन्हीं से मंत्र ग्रहण किया हो अथवा उन्हें अपना मानस गुरु बनाया हो। उन्होंने किसी मुसलमान फकीर को अपना गुरु बनाया हो इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता।