पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३४७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६३
परिशिष्ट

कोहै लरका बेचई लरकी बेचै कोइ ।
सांझा करे कबीर स्यों हरि संग बनज करेइ ॥ १८०॥
जहँ अनभौ तहँ भै नहीं जहँ भौ तहँ हरि नाहि ।
कह्यो कबीर बिचारिकै संत सुनहु मन माहि ॥ १८१ ॥
जोरी किये जुलम है कहता नाउ हलाल ।
दफतर लेखा माँगिये तब होइगो कौन हवाल ॥ १८२ ।।
ढू'ढत डोले अंध गति अरु चीनत नाहीं संत ।
कहि नामा क्यों पाइयै बिन भगतहँ भगवंत ॥ १८३ ॥
नीचे लोइन कर रहौ जे साजन घट मांहि ।
सब रस खेलो पीय सौं किसी लखावौ नाहि ॥ १८४ ॥
बूड़ा बंश कबीर का उपज्यो पूत कमाल ।
हरि का सिमरन छाड़िकै घर ले आया माल ॥ १८५ ।।
मारग मोती बीथरे अंधा निकस्यो आइ ।
जोति बिना जगदीश की जगत उलंघे जाइ ।। १८६ ॥
राम पदारथ पाइ कै कबिरा गाँठि न खोल ।
नहीं पहन नहीं पारखू नहीं गाहक नहीं मोल ॥ १८७ ॥
सेख सबूरी बाहरा क्या हज काबै जाइ ।
जाका दिल साबत नहीं ताको कहां खुदाइ ॥ १८८॥
सुनु सखी पिउ महि जिउ बसै जिय महि बसै कि पीउ ।
जीउ पीउ बूझौ नहीं घट महि जीउ कि पीउ ॥ १८९ ॥
हरि है खांडु रे तुमहि बिखरी हाथों चुनी न जाइ ।
कहि कबीर गुरु भली बुझाई कीटी होइ के खाइ ॥ १९०॥
गगन दमांमा बाजिया परयो निसानै घाउ ।
खेत जु मारबो सूरमा अब जूझन को दाउ ॥ १९१ ॥
सूरा सो पहिचानियै जु लरै दीन के हेत।
पुरजा पुरजा कटि मरै कबहुँ न छाड़ै खेत ॥ १९२ ॥