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कबीर-ग्रंथावली

हज काबे हैं। जाइया मागे मिल्या खुदाइ ।
साई मुझ स्यो लर परसा तुझे किन फुरमाई गाइ ।। १६७ ।।
हरदी पीर तनु हरे चून चिन्ह न रहाइ।
बलिहारी इह प्रीति को जिह जाति बरन कुल जाइ ।। १६८ ॥
हरि का सिमरन छाडिकै पाल्यो बहुत कुटंबु ।
धंधा करता रहि गया भाई रहा न बंधु ।। १६६ ।।
हरि का सिमरन छाडिक राति जगावन जाइ ।
सर्पनि होइकै औतरे जाये अपने खाइ ॥ १७० ।।
हरि का सिमरन छाडिकै अहोई राखे नारि ।
गदही होइ कै तिरै भारु सहै मन चारि ।। १७१ ।।
हरि का सिमरन जो करै सो सुखिया संसारि ।
इत उत कतहु न डोलई जस राखै सिरजनहारि ॥ १७२ ॥
हाड़ जरे ज्यों लाकरी केस जरे ज्यों घासु ।
इहु जग जरता देखिकै भयो कबीर उदासु ।। १७३ ॥
है गै बाहन सघन धन छत्रपती की नारि ।
तासु पटतर ना पुजै हरि जन की पनहारि ॥ १७४ ॥
है गै बाहन सघन धन लाख धजा फहराइ ।
या सुख तै भिक्खा भली जो हरि सिमरत दिन जाइ ॥ १७५
जहां ज्ञान तहँ धर्म है जहां झूठ तहं पाप ।
जहाँ लोभ तहँ काल है जहां खिमा तहँ आप ।। १७६ ।।
कबीरा तुही कबीरु तू तेरो नाउ कबीर ।
राम रतन तब पाइयै जौ पहिले तजहि सरीर ।। १७७ ॥ .
कबीरा धूर सकेल कै पुरिया बांधी देह।
दिवस चारि को पेखना अंत खेह की खेह ॥ १७८ ॥
कबीरा हमरा कोइ नहीं हम किसहू के नाहि ।
जिन यहु रचन रचाइया तिसही माहि समाहिं ।। १७६ ।।