पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३२६

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कबीर-ग्रंथावली

- राम नाम ल्यौ लाइ करि, चित चेतनि ह जागि ।
कहै कबीर ते ऊबरे, जे रहे राम ल्या लागि ।
अरचित अबिगत है निरधारा, जाण्यां जाइ न वार न पारा ॥
लोक बेद थै अछ नियारा, छाड़ि रहयौ सबही संसारा ।
जसकर गांउ न ठांउ न खेरा, कैसे गुन बरनूं मैं तेरा ।।
नहीं तहां रूप रेख गुन बांनो, ऐसा साहिब है अकुलांना ॥
नहीं सो ज्यान न बिरध नहीं बारा, पापै पाप मापनपा तारा॥
कहै कबीर बिचारि करि, जिनि को लावै भग।
सेवा तन मन लाइ करि, राम रह्या सरबंग ॥
नहीं सो दूरि नहीं सो नियरा, नहीं सो तात नहीं सो सियरा॥
पुरिष न नारि करै नहीं क्रोरा, घांम न धांम न ब्यापै पीरा ॥
नदी न नाव धरनि नहीं धीरा, नहीं से काच नहीं सो हीरा ।।
कहै कबीर बिचारि करि, तासू लावो हेत।
बरन बिचरजत ह रहया, नां सो रयांम न सेत ।।
नां वो बारा ब्याह बराता, पीत पितबर स्याम न राता ।।
तीरथ ब्रत न पावै जाता, मन नहीं मोनि बचन नहीं बाता ॥
नाद न बिंद गरथ नहीं गाथा, पवन न पाणी संग न साथा ।।
कहै कबीर बिचारि करि, ताकै हाथि न नाहि ।
सो साहिब किनि सेविये, जाकै धूप न छोह ।।
ता साहिब कै लागौ साथा, दुख सुख मेटि रहनौ अनाथा ॥
न जसरथ घरि औतरि मावा, नां लंका का राव संतावा ॥
देवै कूख न प्रातरि प्रावा, ना जसवै ले गाद खिलावा ॥
ना वो ग्वालन के संग फिरिया, गोबरधन ले न कर धरिया ॥
बावन होय नहीं बलि छलिया, धरनी बेद लेन उधरिया ॥
गंडक सालिग राम न काला, मछ कछ है जलहि न डोला ।
बद्री बैस्य ध्यान नहीं लावा, परसराम है खत्री न संतावा ।।